Thursday, October 8, 2015

कचरा

एक गाय
शहर की सडक़ों पर
चुपचाप मर गई
कुछ कागज और
पन्नियों को खाकर
गुजर गई

कुछ वैसे ही पन्नियाँ
कचरे के ढेर में पड़ीं थी
समाज का कचरा
और
विचारों की कागज-पन्नियाँ
सब सड़ रही थी

कुछ कागजों में धर्म
के भारी नारे लिखे थे
कुछ पन्नियों में
गौ रक्षा के वादे लिखे थे
ये कागज और पन्नी
ऐसे उलझ गए थे
जैसे मानों
दो धर्म के पहरेदार
परस्पर लड़ रहे थे

कागजों में एक तो
कल का अखबार था
गौ हत्या पर भी
एक समाचार था
उधर एक इंसान
अफवाहों के बीच
मारा गया था
इधर वही कतरन खाके
एक गाय मारी गई थी

एक समाज सेवक
सफाई के बहाने
कचरे की बू
और फैला रहा था
तो कोई सियासी
आसपास ही
गो रक्षा के नारे लगा रहा था

कुछ धर्म पाल
धर्म की पूड़ियों वाला
कागज बीन रहे थे
कुछ सियासी सरदार
बीफ और गायों
वाले कतरन छीन रहे थे

कुछ समाचार वाले
देश की एकता खा रहे थे
एकता के बहाने, नेता
देश, चबा रहे थे

देश का राज्य,
राज्य का विधान
बीफ विधान सभा भी पहुँच गई
बीफ का लहू देख
कुछ विधायक
एक दूसरे को ठोक बजा रहे थे

फिर एक अखबार
के मुड़े माड़े
सलवट बिगाड़े
फटे टुकड़े पर
नजर गई,
चुनाव के समाचार
चुनाव के बाजे,
बाजे संग गायें

गायें चुनाव का मुद्दा बन रही थीं
चुनाव से गाय छाई
या गाय से चुनाव छाया?
इस प्रश्न को और
कठिन कर रही थीं

कुछ चेहरे थे अखबारों में
धर्म के पहरेदारों के
और खुनी लकीरें धर्मों की
लकीरों से धर्म बंटा था
और धर्म से इंसान

कुछ समाचारों में
कुछ धर्मपाल
लहू खौलने का बहाना
गौ माता की आड़ में कर रहे थे
और पत्थर से बेटे कुचलकर
एक माँ को बेबस कर रहे थे

कुछ समाचारों में
सियासी लोग
गौ माता को बेचकर
सियासत जमा रहे थे
फिर उनके विरोध में
कुछ और धर्मपाल
शक्ति प्रदर्शन की खातिर
फिर बीफ खा रहे थे

कचरे में सब कुछ
सड़ गल रहा था
अख़बार ,
समचार,
देश,
संस्कृति ,
आचार ,
विचार,

और ये सब सड़ांध
मस्तिष्क को कर्कश
बना रहे थे

आसपास सड़को पर कई नरमुंड
समाज धर्म और परलोक के
भ्रम वाले
पुलिंदें लपेटे
चुपचाप चले जा रहे थे

Sunday, August 16, 2015

दिल नहीं रोता


नरमुंडों, की झुण्ड रोज सड़कों पर निकलती है,
मगर धड़कता दिल, धड़ के साथ नहीं होता,
देखते कई जुल्म ये रोज ,  चुपचाप गुजरते हैं,
औरों की पीड़ा देख कर कोई नहीं रोता ,
 
नहीं रोता ये दिल सुनकर, के कहीं दो चार मर गए
मेरे नगर, मेरे देश में ये कब नहीं होता
तिरंगे में लिपटे शहीद देख अब दिल नहीं रोता
रोते बिलखते नसीब, देख अब दिल नहीं रोता
 
नजर मिल नहीं पाती, उन लाचार आँखों से
ट्रैफिक में फंसी कार का शीशा नहीं उठता
खुले हाथों को देख फुटपाथ पर, ये दिल नहीं रोता
भूखे पेट के हालात पर, ये दिल नहीं रोता
 
लूटते लोग, लोगों को धरम के नाम पर कितने
कहीं तलवारें चल जाती हैं ,  लहू बदनाम है होता
धरम की तेज धारी देख कर, ये दिल नहीं रोता
जली बस्ती वो सारी देखकर , ये दिल नहीं रोता
 
मासूम के लूटने की ख़बरें कब नहीं आती
मगर क्यों लूटना ये देख, दिल आपा नहीं खोता
मैले आँचल देखकर , अब दिल नहीं रोता
फैले काजल को  देखकर, अब दिल नहीं रोता

Thursday, July 9, 2015

माँ, करूँ तुझपे क्या अर्पण

शुन्य सा व्याकुल विकल था,
सामने ना कोई हलचल,

तूने लाया था  जहाँ में,
मेरा सबकुछ तेरा पल पल,

मेरी सांसो को जगाया, 
मुझको आँचल में सुलाया,

मैं तो था कुछ भी नहीं माँ ,
तूने ही मुझको बनाया,


रतजगा कितना किया है,
मेरे लिए तूने जिया है,

माँ , करूँ तुझपे क्या अर्पण?
मेरा सबकुछ तेरा दिया है. 

Monday, July 6, 2015

अगर मैं रास्ता होता

दुआएं कैसे दूँ मैं तुम्हें सारे ज़माने की,
पता है? मेरी दुआओं का असर नहीं होता,

फिर भी कहता की पाओ हर ख़ुशी को तुम,
अगर मैं आसमां  में बैठा कोई खुदा होता,

तुमने पूछा  था कभी, तन्हाई में क्यों रहते हो,
बता देता तुम्हें सबकुछ अगर मैं दास्ताँ होता,

हर मंजिल पे तेरा नाम हो, हर चाहत हो पूरी,
बिछा  देता मैं खुद पे फूल अगर मैं रास्ता होता 
        (मूल रचना २०-जुलाई-२००४)



Wednesday, February 25, 2015

मैं ना प्रहरी पर,जगा हूँ,

रात्रि का अंतिम पहर है, 
मैं ना प्रहरी पर,जगा हूँ,

चक्र्व्यूह  दिन रात का है, 
अभिमन्यु सा मैं ठगा हूँ,

समय अकाट्य, और अनश्वर,
कौन करेगा व्यूह भेदन,

कौन काटेगा समय को,
छणिक जीवन, छणिक  स्पंदन,

अंध सिंधु में गोते खाते, 
विरल निर्झर सा प्रकाश,

हार माने सहमे बैठा,
तारों संग विशाल आकाश, 

कौन करता लेखा जोखा,
कौन संगी, कैसा धोखा,

रोज है  एक नया अनुभव,
और  मैं नित ही ठगा हूँ,

रात्रि का अंतिम पहर है, 
मैं ना प्रहरी पर,जगा हूँ,

मृत्यु वाला मौन नहीं पर,
ख़ामोश हैं बिलकुल अँधेरा,

रोज ही दिन आये है,
पर, होगा कब अगला सबेरा,

नरमुंडों,के झुण्ड संग,
कब मानव धड़कन स्पंदित होंगे,

कब निर्दोष, दोषी ना होंगे,
और कब दोषी दण्डित होंगे,


प्रश्न वही है युगों युगों से, 
प्रश्नो से मैं फिर ठगा हूँ,

रात्रि का अंतिम पहर है, 
मैं ना प्रहरी पर,जगा हूँ,


Tuesday, February 10, 2015

एक ऐसा आइना हूँ मैं

तू ना देख कर मुझे देख ले,एक ऐसा आइना हूँ मैं,
जहाँ शाम से ना शब् मिले,एक ऐसा सिलसिला हूँ मैं


मुझे इस कदर ना तलाश कर तेरी आरजू में बसा हूँ मैं,
मुझे मत नवाज तू सुकून ए शाम, लम्हों का बस कतरा हूँ मैं,

Friday, February 6, 2015

शुक्रवार की ये शाम आ गई ,

सहमे हुए हों, आचार की बरनी तोड़कर,
और, माँ मुस्कराते हुए गले लगा गई,

बचपन में रूखी-रूठी  सी हो शाम, और,
पापा  संग जैसे,  नई  पेंसिल घर आ गई,

गर्मी की दोपहरी में, बिखरे हों, फर्श पर,
और गुल हुई बिजली, पंखा घुमा गई,

तंग सी गली में  गुजरते,कुछ गुनगुनाते,
पड़ोस की लड़की, नजर आ गई,

कॉलेज का लेक्चर हो कोई, और 
अनजाने उनसे, नजर टकरा गई,

बारिश, में दोस्तों, संग भीगते भागते,, 
टूटी-टपकती  झोपड़ी की चाय भा गई,

तंग आ गए हों, वही-वही कपड़ों से,
और वो फटी, पुरानी जीन्स याद आ गई,

बस ऐसे ही कुछ, कुछ ऐसे ही शायद,
शुक्रवार की ये शाम आ गई ,