एक गाय
शहर की सडक़ों पर
चुपचाप मर गई
कुछ कागज और
पन्नियों को खाकर
गुजर गई
शहर की सडक़ों पर
चुपचाप मर गई
कुछ कागज और
पन्नियों को खाकर
गुजर गई
कुछ वैसे ही पन्नियाँ
कचरे के ढेर में पड़ीं थी
समाज का कचरा
और
विचारों की कागज-पन्नियाँ
सब सड़ रही थी
कुछ कागजों में धर्म
के भारी नारे लिखे थे
कुछ पन्नियों में
गौ रक्षा के वादे लिखे थे
ये कागज और पन्नी
ऐसे उलझ गए थे
जैसे मानों
दो धर्म के पहरेदार
परस्पर लड़ रहे थे
कागजों में एक तो
कल का अखबार था
गौ हत्या पर भी
एक समाचार था
उधर एक इंसान
अफवाहों के बीच
मारा गया था
इधर वही कतरन खाके
एक गाय मारी गई थी
एक समाज सेवक
सफाई के बहाने
कचरे की बू
और फैला रहा था
तो कोई सियासी
आसपास ही
गो रक्षा के नारे लगा रहा था
कुछ धर्म पाल
धर्म की पूड़ियों वाला
कागज बीन रहे थे
कुछ सियासी सरदार
बीफ और गायों
वाले कतरन छीन रहे थे
कुछ समाचार वाले
देश की एकता खा रहे थे
एकता के बहाने, नेता
देश, चबा रहे थे
देश का राज्य,
राज्य का विधान
बीफ विधान सभा भी पहुँच गई
बीफ का लहू देख
कुछ विधायक
एक दूसरे को ठोक बजा रहे थे
फिर एक अखबार
के मुड़े माड़े
सलवट बिगाड़े
फटे टुकड़े पर
नजर गई,
चुनाव के समाचार
चुनाव के बाजे,
बाजे संग गायें
गायें चुनाव का मुद्दा बन रही थीं
चुनाव से गाय छाई
या गाय से चुनाव छाया?
इस प्रश्न को और
कठिन कर रही थीं
कुछ चेहरे थे अखबारों में
धर्म के पहरेदारों के
और खुनी लकीरें धर्मों की
लकीरों से धर्म बंटा था
और धर्म से इंसान
कुछ समाचारों में
कुछ धर्मपाल
लहू खौलने का बहाना
गौ माता की आड़ में कर रहे थे
और पत्थर से बेटे कुचलकर
एक माँ को बेबस कर रहे थे
कुछ समाचारों में
सियासी लोग
गौ माता को बेचकर
सियासत जमा रहे थे
फिर उनके विरोध में
कुछ और धर्मपाल
शक्ति प्रदर्शन की खातिर
फिर बीफ खा रहे थे
कचरे में सब कुछ
सड़ गल रहा था
अख़बार ,
समचार,
देश,
संस्कृति ,
आचार ,
विचार,
और ये सब सड़ांध
मस्तिष्क को कर्कश
बना रहे थे
आसपास सड़को पर कई नरमुंड
समाज धर्म और परलोक के
भ्रम वाले
पुलिंदें लपेटे
चुपचाप चले जा रहे थे